Menu
blogid : 197 postid : 14

“दूसरे भारत” में बसती है मंजू की दुनिया

Bhado Majhi
Bhado Majhi
  • 7 Posts
  • 9 Comments

भादो माझी, जादूगोड़ा
…………………………………………………………………..
गोद में मासूम बच्चा। इस बात से अनजान कि उसकी मां भूखे रह कर उसे दूध पिला रही है। बच्चे की आंखे बिल्कुल मासूम, लेकिन न जाने क्यों फिर भी उसकी ये मासूम आंखे सवाल करती सी नजर आती हैं? सवाल यह कि भूखे पेट कबतक उसकी मां अपने खून को दूध का शक्ल देकर पिलाती रहेगी…? सवाल यह कि कब तक उसके पिता दस-दस रुपए के लिए अपने खून को पसीने की कीमत पर बेचते रहेंगे…? सवाल यह कि क्या यही उनकी नियति है…?
मासूम आंखों के इन सवालों का सटीक जवाब तो किसी के पास नहीं, लेकिन इन सवालों के जवाब में एक सवाल जरूर है। सवाल यह कि कब तक ऐसे हालात रहेंगे? 11 साल हो गए। …और कितना वक्त चाहिए झारखंड को? क्या झारखंड के गांवों में जन्म लेने वाले बच्चों की आंखे यही सवाल दोहराती रहेंगी?
झारखंड के इस बेबसी की जीवंत तस्वीर आज भी मेट्रो-लाइफ स्टइल वाले शहरों से ज्यादा दूर नहीं। जिस मजबूर मासूम का जिक्र हम कर रहे हैं उसकी मजबूरी की झलक भी देश के प्रथम नियोजित (प्लान्ड) शहरों में शामिल जमशेदपुर शहर से महज 14 किमी दूर भाटिन के डुंगरीडीह (जादूगोड़ा) गांव में ही दिखी। यहां मंजू देवी ने अपने पति व छोटे-छोटे बच्चों संग दुनिया बसाई है। उसकी इस दुनिया को ‘दूसरे’ भारत की तस्वीर कहा जा सकता है। सूखी झाडिय़ों से बनी झोपड़ी में 13 डिग्री तक ठंडी रात ठिठुर कर गुजारने वाले इस परिवार की हकीकत झारखंड के 11 साल के सफर को खुद बयां करती है। पेट की चिंता ने कुछ समय पहले इस परिवार को दुमका से जिलाबदर कर पूर्वी सिंहभूम पहुंचा दिया। दुमका में पहले खेती-बाड़ी से काम चल जाया करता था, लेकिन सूखे व सिंचाई की व्यवस्था न होने के कारण तंगहाली का आलम इस कदर बिगड़ा कि यहां (पूर्वी सिंहभूम) में खजूर के पेड़ से रस जुटा कर बेचने की नौबत आ गई, अब तो इसी से पेट पल जाता है। देसी भाषा में खजूर के इस रस को ताड़ी कहते हैं। ठंड का मौसम है सो किसी तरह बस 10-20 रुपए रोजाना की कमाई हो जाती है। बस इतने में रोटी का इंतजाम करना होता है। महंगाई के इस जमाने में 20 रुपए में एक किलो आटा मुश्किल से मिल पाता है, ऐसे में इतनी ही कमाई में काम चलाना होता है। गर्मी में तो 60-70 रुपए कमाई हो जाती है, लेकिन ठंड में एक-एक दिन तो भूखे रहने की स्थिति आ जाती है।
सूखी झाडिय़ों से बनाए घर में रात गुजरती है। मंजू कहती हैं-”पति अमरूद चौधरी ताड़ी से हमारा पेट पालते हैं। किसी-किसी दिन रोटी नसीब नहीं हो पाती तो ताड़ी पीकर ही सो जाया करते हैं। क्या करें, पढ़े लिखे हैं नहीं, करें भी तो क्या?” सरकारी सुविधाओं के बारे पूछे जाने पर मंजू कहती हैं-”वोट वाला कार्ड तो है बाबू, लेकिन ब्लॉक के बड़े बाबू कहते हैं कि हम दुमका वाले हैं इसलिए इहां हमारा लालकार्ड नहीं बनेगा। मुख्रिया को बोले तो वो हजार रुपया मांगते हैं, बोलते हैं रुपया दो तो हम तुम्हारे अर्जी पर अंगूठा का छाप लगा देंगे। अब हम हजार रुपया कहां से लाएं। खाने का तो ठेकान नहीं….?
मंजू देवी की इस दुनिया में दुमका से पलायन करने की मजबूरी दिखती है, सूबे में पेट पालने के अवसरों की अनुपलब्धता भी दिखती है तो वहीं सरकारी व्यवस्था में पड़ा छेद भी दिखता है। कहा जा सकता है कि मंजू देवी की दुनिया विकासशील भारत से बिल्कुल जुदा है, और उनकी दुनिया अलग भारत में बसती है। उस भारत में जिसमें अमरों का इंडिया अलग है और गरीबों का भारत अलग…। मंजू की दुनिया उसी दूसरे भारत में बसती है….।

Tags:   

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh