(फोटो : डेली फोटो में सबर नाम के फोल्डर में जुरकी सबर, सुकरा सबर व जूही सबर की)
-: जमशेदपुर में चौंधियाई जुरकी सबर की आंखे :-
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जमशेदपुर, नगर संवाददाता : टीप-टॉप हीरोइन को टीवी पर देख आभागी ‘लक्ष्मी लाडलीÓ आज खूब इतरा रही थी। पहली बार ‘ईडियट बॉक्सÓ सामने था, सो खुद भी बावली सी हुई जा रही थी। इससे पहले कभी डिब्बे के अंदर लोगों को नाचते गाते जो नहीं देखा था।
है तो वह भी किरण बेदी व कल्पना चावला की तरह ‘लक्ष्मीÓ लेकिन उसके नसीब ने उसे लाडली बनने की इजाजत कभी नहीं दी। पहली बार घने जंगलों का अंधेरा छंटा है और उसे थोमस आल्वा एडशिन के आविष्कार के 133 साल बाद बिजली का बल्व जलता देखना नसीब हुआ है। इस ‘लक्ष्मीÓ का नाम है जुरकी सबर।
जुरकी सबर झारखंड के लुप्तप्राय जनजातीय समूह की एक ऐसी आभागी बेटी जिसे राज्य सरकार की लक्ष्मी लाडली योजना तक ने भी ‘लक्ष्मी लाडलीÓ मानने से इनकार कर दिया। वह सिर्फ इसलिए क्योंकि जुरकी के माता-पिता को ‘फैमिली प्लानिंगÓ पर रोक है, और सरकार की नीति है कि जो फैमिली प्लानिंग नहीं करेगा उसे लक्ष्मी लाडली योजना का लाभ नहीं मिलेगा। बहरहाल जमशेदपुर से करीब 20 किमी दूर पोटका के सबरनगर की रहने वाली जुरकी सबर को पहली बार जमशेदपुर घूमने का मौका मिला। स्वयं सेवी संस्था (एनजीओ) युवा की मदद से 11 साल की जुरकी ने पहली बार टीवी देखा, पहली बार पक्के मकान में रही।
11 साल की छोटी सी उम्र में जुरकी कामीन है, सबर जाति में कामीन उसे कहा जाता है जो दूसरों के घर सिर्फ दो वक्त के भोजन के लिए नौकरानी के रूप में काम करती है। न कोई वेतन न कोई ईनाम। जुरकी के पिता पूर्णो सबर लकड़ी काट कर दिन भर में 40-50 रुपए कमा लेते हैं। दिन भर पूर्णो जंगल में लकड़ी काटते हैं सो बेटी जुरकी को कामीन बनाकर दूसरे के घर काम कराते हैं।
मासूम जुरकी की जिंदगी ‘पिज्जा-पीढ़ीÓ से बिल्कुल जुदा है। जुबिली पार्क घूमने गई तो पिज्जा का नाम पहली बार सुना और पिज्जा की शक्ल भी पहली बार देखी। मासूमियत से पूछा-‘इसे खाते हैं?Ó रास्ते में बहुमंजिला इमारत देख तो जैसे उसकी आंखें ही चौंधिया गई। बस इतना बोली-‘बाबा लो।Ó ट्राइबल कल्चर सेंटर सोनारी में ठहराव था, सो सेंटर में लगे आदिवासियों की तस्वीरों ने उसे कुछ राहत दी, क्योंकि वे उसकी तरह ही लग रहे थे। यहां कंप्यूटर दिखा तो उसे टीवी और कंप्यूटर में खास फर्क समझ न आया, बोली -‘इटाय तो लोक गिला नाचेन।Ó यानी इसमें तो लोग नाचते हैं।
जिस लुप्तप्रया जनजाति समुदाय (सबर) से जुरकी आती है, उसमें जुरकी की उम्र का हर बच्चे ने इतनी ही दुनिया देखी है। जमशेदपुर की पिज्जा-बर्गर कल्चर इनके लिए किसी पहले से कम नहीं। जुरकी के गांव सबरनगर में अब तक बिजली नहीं पहुंची। जुरकी के साथ सुकरा सबर भी जमशेदपुर भ्रमण को आया है। सुकरा सबर भी कम आभागा नहीं, उसे तो उसके पिता राजेन सबर ही स्कूल जाने से रोकता है। राजेन उसे धांगड़ (नौकर) बनाना चाहता है, ताकि भूखे न सोना पड़े। जुरकी के साथ बिन पिता की जुही सबर भी जमशेदपुर देखने आई है। उसके लिए भी टीवी देखना किसी अजूबे से कम नहीं।
-: जमशेदपुर में चौंधियाई लुप्तप्राय जनजाति से आने वाली जुरकी सबर की आंखे :-
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टीप-टॉप हीरोइन को टीवी पर देख आभागी ‘लक्ष्मी लाडली’ आज खूब इतरा रही थी। पहली बार ‘ईडियट बॉक्स’ सामने था, सो खुद भी बावली सी हुई जा रही थी। इससे पहले कभी डिब्बे के अंदर लोगों को नाचते गाते जो नहीं देखा था।
है तो वह भी किरण बेदी व कल्पना चावला की तरह ‘लक्ष्मी’ लेकिन उसके नसीब ने उसे लाडली बनने की इजाजत कभी नहीं दी। पहली बार घने जंगलों का अंधेरा छंटा है और उसे थोमस आल्वा एडशिन के आविष्कार के 133 साल बाद बिजली का बल्व जलता देखना नसीब हुआ है। इस ‘लक्ष्मी’ का नाम है जुरकी सबर।
जुरकी सबर झारखंड के लुप्तप्राय जनजातीय समूह की एक ऐसी आभागी बेटी जिसे राज्य सरकार की लक्ष्मी लाडली योजना तक ने भी ‘लक्ष्मी लाडली’ मानने से इनकार कर दिया। वह सिर्फ इसलिए क्योंकि जुरकी के माता-पिता को ‘फैमिली प्लानिंग’ पर रोक है, और सरकार की नीति है कि जो फैमिली प्लानिंग नहीं करेगा उसे लक्ष्मी लाडली योजना का लाभ नहीं मिलेगा। बहरहाल जमशेदपुर से करीब 20 किमी दूर पोटका के सबरनगर की रहने वाली जुरकी सबर को पहली बार जमशेदपुर घूमने का मौका मिला। स्वयं सेवी संस्था (एनजीओ) युवा की मदद से 11 साल की जुरकी ने पहली बार टीवी देखा, पहली बार पक्के मकान में रही।
11 साल की छोटी सी उम्र में जुरकी कामीन है, सबर जाति में कामीन उसे कहा जाता है जो दूसरों के घर सिर्फ दो वक्त के भोजन के लिए नौकरानी के रूप में काम करती है। न कोई वेतन न कोई ईनाम। जुरकी के पिता पूर्णो सबर लकड़ी काट कर दिन भर में 40-50 रुपए कमा लेते हैं। दिन भर पूर्णो जंगल में लकड़ी काटते हैं सो बेटी जुरकी को कामीन बनाकर दूसरे के घर काम कराते हैं।
मासूम जुरकी की जिंदगी ‘पिज्जा-पीढ़ी’ से बिल्कुल जुदा है। जुबिली पार्क घूमने गई तो पिज्जा का नाम पहली बार सुना और पिज्जा की शक्ल भी पहली बार देखी। मासूमियत से पूछा-‘इसे खाते हैं?’ रास्ते में बहुमंजिला इमारत देख तो जैसे उसकी आंखें ही चौंधिया गई। बस इतना बोली-‘बाबा लो।’ ट्राइबल कल्चर सेंटर सोनारी में ठहराव था, सो सेंटर में लगे आदिवासियों की तस्वीरों ने उसे कुछ राहत दी, क्योंकि वे उसकी तरह ही लग रहे थे। यहां कंप्यूटर दिखा तो उसे टीवी और कंप्यूटर में खास फर्क समझ न आया, बोली -‘इटाय तो लोक गिला नाचेन।’ यानी इसमें तो लोग नाचते हैं।
जिस लुप्तप्रया जनजाति समुदाय (सबर) से जुरकी आती है, उसमें जुरकी की उम्र का हर बच्चे ने इतनी ही दुनिया देखी है। जमशेदपुर की पिज्जा-बर्गर कल्चर इनके लिए किसी पहले से कम नहीं। जुरकी के गांव सबरनगर में अब तक बिजली नहीं पहुंची। जुरकी के साथ सुकरा सबर भी जमशेदपुर भ्रमण को आया है। सुकरा सबर भी कम आभागा नहीं, उसे तो उसके पिता राजेन सबर ही स्कूल जाने से रोकता है। राजेन उसे धांगड़ (नौकर) बनाना चाहता है, ताकि भूखे न सोना पड़े। जुरकी के साथ बिन पिता की जुही सबर भी जमशेदपुर देखने आई है। उसके लिए भी टीवी देखना किसी अजूबे से कम नहीं।
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